डॉ. अलका यतींद्र यादव
भगवान श्री राम के जीवन का लंबा समय वनवास में व्यतीत हुआ था, अतः वनों से भारतीय संस्कृति का सम्बंध उनके काल से ही घर-घर में पहुँच चुका था, जब महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना कर दी थी. लेकिन वर्तमान में वाल्मीकि रचित पूर्ण रामायण कम ही लोगों ने पढ़ी है, इसलिये हम उसमें वर्णित वनों से लगभग अपरिचित हैं.
वाल्मीकि जी द्वारा रामायण की रचना में भारतीय वनों का विवरण प्राप्त होता है, वैसा किसी अन्य ग्रँथ में प्राप्त नहीं होता. वर्तमान के वानिकी वैज्ञानिक भी रामायण में वनों के उल्लेख को पढ़कर हतप्रभ रहते हैं और कितने ही शोधकर्ताओं ने वाल्मीकि जी द्वारा रामायण में उल्लेखित भारतीय वनों व वनस्पतियों पर ही शोध पत्र लिखे हैं.
एक शोध के अनुसार वाल्मीकि रामायण में 182 किस्म के पेड़-पौधों का वर्णन है, जो विश्व के किसी भी अन्य काव्य ग्रन्थों में नहीं प्राप्त होता! वाल्मीकि जी को भारत के विभिन्न क्षेत्रों के वनों का इतना गूढ़ ज्ञान था कि उनके बताये विवरण आज भी सटीक बैठते हैं.
भारतीय प्रायद्वीप के वनों को वर्तमान वैज्ञानिक हिमालय से श्रीलंका तक विभिन्न श्रेणियों में बाँटते हैं जैसे शीतोष्ण वन, सूखे पर्णपाती वन, नम पर्णपाती वन, मिश्रित पर्णपाती वन और उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन. लगभग यही वैज्ञानिक वर्णन श्री राम के अयोध्या से लेकर श्री लँका तक की वनवास यात्रा में और वनवास के अतिरिक्त भी उनकी लीला से जुड़ी अन्य कथाओं में प्राप्त होता है. कुछ उदाहरण –
- वाल्मीकि रामायण में सर्प्रथम बालकाण्ड के 24 से 27 सर्गों में गंगा व सरयू नदियों के संगम के पूर्व में ताड़का नाम की राक्षसी से आतंकित और उसी के नाम से पहचाने जाने वाले “ताड़का वन” का उल्लेख प्राप्त होता है, यह उल्लेख वर्तमान के बिहार व पश्चिम बंगाल में गंगा के मैदानी नम पतझड़ी जँगलों का पहला स्पष्ट उल्लेख है. जहाँ धातकी, साल, इन्द्रजौ, पाटला, बिल्व, गाब, कुटज, अर्जुन, तेंदू जैसे घने वृक्ष बहुतायत में हुआ करते थे.
- वाल्मीकि रामायण में अयोध्या कांड के 54 से 55 सर्गों व 95 से 95 सर्गों में प्रयाग से चित्रकूट के वन का मार्ग और चित्रकूट का विवरण प्राप्त होता है, जिसमें यमुना नदी के किनारे बाँस व सरकंडों के वन, किनारे से आगे बरगद, नीम, आम, कटहल के पेड़ों की सघनता वाले सूखे पर्णपाती वन और फिर चित्रकूट की पहाड़ियों में साल के पेड़ों के नम पर्णपाती वन का जिक्र मिलता है. साथ ही इन वनों में विभिन्न प्रकार के कंद प्रजाति के पौधों की बाहुल्यता का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जो आज भी प्रयाग से यमुना नदी के दक्षिण में उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश के विंध्याचल के वनों की विशेषता है.
- इसी प्रकार अरण्यकाण्ड के 1 से 11 सर्गों में श्री राम द्वारा दण्डकारण्य क्षेत्र में विभिन्न आश्रमों व तीर्थों के उल्लेख में साल के ऊँचे वृक्षों के साथ जामुन, बकुल, चम्पा के वृक्षों वाले नम पर्णपाती वन क्षेत्र का वर्णन मिलता है, जो आज भी पूर्वी मध्यप्रदेश, छतीसगढ़ व उनसे सटे महाराष्ट्र, उड़ीसा व आंध्रप्रदेश के जँगलों की विशिष्टता है.
- अरण्यकाण्ड के 15वें सर्ग में गोदावरी के तट पर सह्याद्रि पर्वतों में पँचवटी के वनों का उल्लेख मिलता है, जिनमें पश्चिमी घाट की ऊँची चोटियों के साथ घास मैदानों में मिश्रित पर्णपाती वनों का उल्लेख है. जहाँ नदी किनारे खजूर, ताल के पेड़ों के साथ मैदानों में कुश, काश, बाँस, आम, कदम्ब, कटहल, शमी, बेर और पहाड़ों में साल, पाटला, चंदन, पुन्नाग, अशोक के पेड़ों के साथ विभिन्न फूलों की लताओं से लदे जँगल मौजूद थे. जो महाराष्ट्र के पश्चिमी घाटों के पार्श्व पहाड़ी ढलानों का आज भी मुख्य भौगोलिक दृश्य है.
- ऐसा ही वृत्तान्त अरण्यकाण्ड के 75वें सर्ग में ऋष्यमुख पर्वत व पम्पासरोवर के वन क्षेत्र का भी प्राप्त होता है जो वर्तमान कर्नाटक में है और पश्चिमी घाट के पर्वतों के उष्ण कटिबंधीय वर्षा वनों के साथ पार्श्व के पर्णपाती वन हैं. जिनमें झील में मौजूद कमल, विभिन्न किस्मों की कुमुदनी, किनारे पर ताल के पेड़ों के साथ मैदानों में कुश, काश, बाँस, आम, कदम्ब, तिलक, केला, कटहल, बकुल, चम्पा और पहाड़ों में साल, पाटला, चंदन, पुन्नाग, अशोक के पेड़ों के साथ विभिन्न फूलों की लताओं जूही, मालती, मोगरे से लदे जँगल मौजूद थे.
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