डॉ. जयप्रकाश सिंह
‘द वैक्सीन वॉर’ कहने को तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की कहानी है, लेकिन यह विज्ञान से अधिक मीडिया की कहानी बन गई है. यह फिल्म मीडिया के नव-यथार्थ को उकेरने का प्रभावी प्रयास है. फिल्म में मीडिया इतना रच-बस गया है कि इसे 2010 में आई फिल्म ‘द पीपली लाइव’ के बाद मीडिया के विश्लेषण की सबसे गंभीर कोशिश माना जा सकता है.
अपनी पिछली फिल्मों की तरह विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म को विज़ुअल्स की बजाय संवादों के माध्यम से आगे बढ़ाने की कोशिश की है. संवाद सच को इतने करीब और प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करते हैं कि वह मुहावरे जैसे लगने लगते हैं. ‘साइंस भी एक पॉलिटिक्स है’, ‘सफलता रावण को खोजने में नहीं उसे मारने में है’, ’सच सुनने का समय आया तो सब सो गए’, ‘ये साइंस वॉर नहीं, इन्फो वॉर है’, ‘ये नैरेटिव कौन बना रहा है कि इंडिया कैन नॉट डू इट’…. जैसे संवाद दर्शकों की स्मृति पर तो प्रभाव छोड़ते ही हैं, उस शब्दावली और युद्ध से भी दर्शकों का परिचय कराते हैं, जिससे भारत पिछले कुछ दशकों से लड़ रहा है.
वास्तव में यह फिल्म हायब्रिड वॉरफेयर के दौर में भारतीय पक्ष को रखने की संजीदगी भरा प्रयास है. भारत अपनी निरंतर मजबूत होती वैश्विक स्थिति के बीच प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों के हायब्रिड वॉर का भी सामना कर रहा है. इस युद्ध में सूचना को केन्द्रीयता प्राप्त होती है.
भारत के विरुद्ध अब तक के सबसे गम्भीर हायब्रिड अटैक कोरोना काल में किए किए गए. कोरोना काल में फेक न्यूज़ के माध्यम से जिस तरह से राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की गई, राष्ट्रीय नीति-निर्णय को पंगु बनाने के प्रयास हुए, अफरातफरी और भय का माहौल पैदा कर दवाइयों की अनावश्यक मांग की गई, उसका अकादमिक मूल्यांकन होना अभी ही बाकी है. झूठ और अर्द्धसत्य के इस महाअभियान को अपनी फिल्म का विषय बनाना नि:संदेह साहस और समझ का काम है. इस फिल्म में यह संदेश भी छिपा है कि भारत अब हायब्रिड युद्ध को समझने लगा है और उसके नागरिक हायब्रिड मोर्चे पर भी जवाबी कार्रवाई करने लगे हैं.
‘द वैक्सीन वॉर’ के माध्यम से वैश्विक प्रोपेगेंडा का उत्तर देने की इतनी गम्भीर और तथ्यपरक कोशिश संभवत: पहली बार हुई है. कोरोना काल में फार्मा-मीडिया इंडस्ट्री का जो गठजोड़ उभरकर सामने आया था, वह इस फिल्म का हिस्सा बना है. कोरोना काल में पीटर सी. गोत्स्जे की एक किताब ‘डेडली मेडिसिन्स एंड ऑर्गनाइज्ड क्राइम: हाउ बिग फार्मा हैज करप्टेड हेल्थकेयर’ काफी चर्चित हुई थी. इस किताब की थीम यही थी कि वैश्विक फार्मा उद्योग वैज्ञानिक प्रयोगों और निष्कर्षों को अपने आर्थिक लाभ के लिए प्रभावित करता है. वह इसे कैसे प्रभावित करता है और जनता पर अपने उत्पादों को वैज्ञानिक खोज बताकर कैसे थोपता है, इसकी झलक इस फिल्म में भी देखने को मिलती है.
विवेक अग्निहोत्री की फिल्मों की एक कोशिश यह भी है कि वह वास्तविक व्यक्तित्वों को लगभग मिलते-जुलते नामों और दृश्यों के साथ अपने फिल्म का चरित्र बनाते हैं. दर्शक उन दृश्यों और पात्रों को आसानी से पहचान लेता है. इससे एक ऐसा जुड़ाव पैदा होता है कि दर्शक स्वयं को फिल्म का हिस्सा मानने लगता है.
संचार दार्शनिक मार्शल मैक्लुहन ने कभी ‘मीडियम इज़ मैसेज़’ के जरिए तथ्य, सूचना और माध्यम के अंतर्संबंधों को नए तरीके से व्याख्यायित करने की कोशिश की थी. उनका आशय यह था कि संदेशों का प्रभाव माध्यम की प्रकृति पर निर्भर करता है. सिनेमाई प्रभाव के संदर्भों में देखें तो उनका आशय कमोवेश ठीक ही लगता है.
‘द कश्मीर फाइल्स’ में जिन तथ्यों की बात कही गई है, वह कमोवेश सार्वजनिक ही थे. लेकिन उन तथ्यों को सिनेमाई पर्दे पर उतारा गया तो समाज में एक नई तरह का उबाल पैदा हो गया. विवेक अग्निहोत्री अपने कम बजट की फिल्म ‘द वैक्सीन वॉर’ के जरिए कुछ ऐसा ही सिनेमाई प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं. फिल्म का संदेश सीधा-सपाट और मर्म पर आघात करने वाला है.
युवाओं को यह फिल्म इसलिए भी देखनी चाहिए कि वह कैसे खतरों और रणनीतियों के बीच ‘ग्लोबल’ हो रहे हैं. यह फिल्म हायब्रिड वॉरफेयर के प्रति लोगों को न केवल जागरूक करती है, बल्कि उन्हें अपनी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित भी करती है.
(लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कश्मीर अध्ययन केंद्र में सहायक आचार्य और हायब्रिड वॉरफेयर के विशेषज्ञ हैं.)