डिब्रूगढ़, असम. इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज (आईसीसीएस) के तत्वाधान में प्राचीन परंपराओं और संस्कृतियों के वरिष्ठों का 8वां त्रिवार्षिक सम्मेलन “साझा सतत समृद्धि” विषय के साथ प्रसिद्ध शिक्षा वैली स्कूल के परिसर में प्रारंभ हुआ. डिब्रूगढ़ परिसर में भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र की कुछ जनजातियों ने ढोल नगाड़ों और भक्ति नृत्यों करते हुए 33 देशों के प्रतिनिधियों के साथ शोभायात्रा के रूप में पारंपरिक पोशाक और साज-सज्जा में भाग लिया. शोभायात्रा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी, वरिष्ठ प्रचारक सुरेश सोनी जी सहित बस्ती के हजारों उत्साहित नागरिकों ने देखा.
गरिमामय उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने की और डॉ. मोहन भागवत मुख्य वक्ता रहे. कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुई, जिसके बाद दुनिया के सात महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करने वाले प्राचीन धर्मों के आठ प्रतिनिधियों की धार्मिक प्रार्थनाएं हुईं, जिनमें से एक अरुणाचल प्रदेश की इदु मिशमी जनजाति की थी.
मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने असम में प्रतिनिधियों का स्वागत किया. उन्होंने बताया कि वर्तमान असहिष्णु और संघर्षग्रस्त दुनिया में, स्वदेशी विश्वासों को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, और उनका पोषण करना हमारा कर्तव्य है. हमें इन विश्वास प्रणालियों को संरक्षित करना चाहिए क्योंकि वे पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्ध हैं. वे अनादि काल से प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर रहते आये हैं. उन्होंने कई असमिया जनजातियों और प्रकृति के साथ उनके जुड़ाव का उल्लेख किया, जो प्राचीन मान्यताओं की समृद्ध परंपरा का निर्माण करते हैं. उन्होंने दु-ख व्यक्त किया कि ये समुदाय धर्मांतरण का लक्ष्य रहे हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल को चारे के रूप में उपयोग किया जाता रहा है. स्वदेशी आस्थाओं का क्षरण अत्यंत चिंताजनक है क्योंकि यह समाज को कमजोर करता है. उन्होंने पूरे भारत में विभिन्न जनजातियों का उदाहरण दिया, जिन्होंने इस हमले का सामना किया है. उन्होंने याद किया कि कैसे भगवान बिरसा मुंडा ने अपने समुदाय को धर्मांतरण से बचाने और मुंडा विश्वास को पुनर्जीवित करने को अपने जीवन का मिशन बना लिया था. उन्होंने महात्मा गांधी की पुस्तक – “मैं हिन्दू क्यों हूं” से उद्धरण दिया, जहां उन्होंने कहा था कि किसी आस्था का खत्म होना उसकी बुद्धिमत्ता का खत्म होना है. उन्होंने दर्शकों को बताया कि असम सरकार ने असम के स्वदेशी विश्वासों के संरक्षण, प्रचार और पोषण के लिए एक अलग विभाग बनाया है.
सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने आध्यात्मिकता की भूमि असम में अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधियों का स्वागत किया. उन्होंने कहा कि यह सभा जो दो दशक पहले एक शुरुआत के रूप में एकत्र हुई थी. इसने दो दशकों तक साथ मिलकर खुद को कायम रखा, यही प्रगति थी और अब “साझा सतत समृद्धि” के लिए एक साथ काम करने की थीम से इसकी सफलता का पता चलेगा. उन्होंने 30 से अधिक देशों की 33 से अधिक प्राचीन परंपराओं का प्रतिनिधित्व करने वाली प्राचीन परंपराओं और संस्कृतियों के वरिष्ठों को बधाई दी कि वे अपने चारों ओर अत्यधिक आक्रामक वातावरण के बावजूद अपने प्राचीन विश्वासों को जीवित रख सके; क्योंकि दुनिया को अब उनके ज्ञान की आवश्यकता है. दो हजार वर्षों की प्रगति और भौतिक समृद्धि के बावजूद, दुनिया को संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है. बाहर या भीतर कोई शांति नहीं है. बच्चे बंदूकें लेकर स्कूल जाते हैं और बिना किसी स्पष्ट कारण के लोगों पर गोली चला देते हैं. ईर्ष्या और अहंकार है, मन की संकीर्णता के कारण संघर्ष हैं. जहाँ लोग “हम और वे, हमारे और उनके” में विभाजित हैं. जो लोग इन समूहों से आगे बढ़कर मानवता को बचाना चाहते हैं, वे अंततः एक और समूह बन जाते हैं. नेता और विचारक पर्यावरण बचाने की बात तो कर रहे हैं, लेकिन बातचीत के अलावा कुछ ठोस हाथ नहीं लगा है.
उन्होंने कहा कि कई सिद्धांत और ‘वाद’ सामने आए – “व्यक्तिवाद” जो समाज को महत्वपूर्ण नहीं मानता था, से लेकर, “साम्यवाद” तक जो समाज को सर्वोच्च मानता था, जिसमें व्यक्तिगत आनंद और सामाजिक शांति के लिए कोई जगह नहीं थी. सभी सिद्धांत भौतिक समृद्धि पर केन्द्रित थे. समाधान खोजने के लिए धर्म विकसित हुए, लेकिन वे भी असफल रहे. अधिक से अधिक, अधिकतम लोगों के लिए अधिकतम भलाई के आदर्श तक पहुँचे क्योंकि उन्होंने समग्रता को नहीं देखा; वे एकता के उस अंतर्निहित तत्व को नहीं समझ सके जो इन सभी मानवीय आयामों को जोड़ता है. वे “सर्वे सुखिनः सन्तु” के प्राचीन ज्ञान तक नहीं पहुंच सके – सभी खुश रहें. उनका विचार सर्वोत्तम परिणामों के लिए प्रतिस्पर्धा का था. स्वाभाविक रूप से, सबसे मजबूत जीत गया. जबकि प्राचीन परंपराएँ “आध्यात्मिक एकता” के अंतर्निहित पहलू को जानती थीं, जिसे भारतीय लोग धर्म कहते हैं. अपने धर्म का पालन करने से आदि, मध्य और अंत में आनंद रहता है. इन प्राचीन संस्कृतियों ने अनुभव किया कि “सभी एक नहीं हैं, बल्कि सब कुछ एक है.” हमारे विभिन्न रूप और अभिव्यक्तियाँ हो सकती हैं, इस विविधता को नकारात्मक दृष्टि से देखने का कोई मतलब नहीं है; हमें विविधता का सम्मान करने की आवश्यकता है क्योंकि यह विभिन्न रूपों में व्यक्त एकता की अभिव्यक्ति है. यह ज्ञान कहता है, खुशी बाहर ही नहीं, भीतर भी है.
सरसंघचालक जी ने कहा कि संस्कृति को अपनाने से शांति और समृद्धि आ सकती है. उन्होंने बताया कि कैसे 1951 में संयुक्त राष्ट्र के एक प्रस्ताव में तीव्र आर्थिक प्रगति के एक लक्ष्य के लिए प्राचीन दर्शन को खत्म करने और पुरानी सामाजिक संस्थाओं के विघटन की बात की गई थी. “लेकिन 2013 में,” “उसे स्वीकार करना पड़ा कि विकास नीतियों में संस्कृति का एकीकरण वैश्विक विकास के लिए आवश्यक था.” हम, विभिन्न परंपराओं से संबंधित प्राचीन ज्ञान प्रणालियाँ यह जानती थीं. इस प्रकार, अब हमारा समय आ गया है. सरसंघचालक जी ने एक लोक कथा साझा की, जिसका सबक यह था कि सही ज्ञान के साथ, हम एक साथ आकर स्थिति को बदल सकते हैं और संघर्षों और पर्यावरणीय आपदा से मुक्त एक नई दुनिया बना सकते हैं; और प्राचीन ज्ञान के साथ शांति का युग लाएँ.
इस अवसर पर ICCS द्वारा एक नई शैक्षणिक और शोध पत्रिका का विमोचन किया गया, जो इतिहास, मानव विज्ञान और शासन पर केंद्रित होगी. ज्ञानवर्धक लेखों और पहले के सम्मेलनों की झलकियों वाली एक स्मारिका का भी विमोचन किया गया. पांच दिवसीय सम्मेलन का समापन 31 जनवरी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी और अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, उपमुख्यमंत्री चौना मीन के सान्निध्य में होगा.