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काशी शब्दोत्सव – भारतीय परंपरा में सह अस्तित्व एवं सबके कल्याण का विचार है - ବିଶ୍ୱ ସମ୍ବାଦ କେନ୍ଦ୍ର ଓଡିଶା

काशी शब्दोत्सव – भारतीय परंपरा में सह अस्तित्व एवं सबके कल्याण का विचार है

वाराणसी. विश्व संवाद केन्द्र काशी की ओर से रूद्राक्ष इण्टरनेशनल कन्वेंशन सेंटर, सिगरा, वाराणसी में आयोजित काशी शब्दोत्सव – 2023 के समापन सत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र प्रचारक अनिल जी ने कहा कि वर्तमान समय में राष्ट्रविरोधी शक्तियां विभिन्न प्रकार की चर्चा चलाकर देश और समाज में अशान्ति पैदा कर रही हैं. उन शक्तियों को उत्तर देने का सबसे अच्छा तरिका काशी शब्दोत्सव जैसा आयोजन है. इसके माध्यम से पूरे देश में भारतीयता का संदेश गया है. इस प्रकार के आयोजन निरंतर होने चाहिए. इससे देश में सकारात्मक वातावरण बनेगा तथा सकारात्मक जागरण होगा.

इसी क्रम में पूर्वी उत्तर क्षेत्र के सह प्रचार प्रमुख मनोजकांत जी ने कहा कि शब्दों की नगरी काशी में यह शब्दोत्सव आगे के वर्षो में भी होगा. इस तरह के चिंतन के लिए काशी ही सबसे उपयुक्त जगह है. उन्होंने काशी शब्दोत्सव के लिए प्राप्त प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री के संदेशों का वाचन किया. समापन सत्र के प्रारम्भ में शैलेश मिश्र ने काशी शब्दोत्सव – 2023 के अन्तर्गत तीन दिनों में सम्पन्न 18 सत्रों का सार संक्षेप प्रस्तुत किया. समारोह के संयोजक डॉ. हरेन्द्र राय ने काशी शब्दोत्सव – 2023 के आयोजन में सहयोग के लिए प्रमुख संस्थाओं तथा प्रमुख लोगों को आभार व्यक्त किया.

इससे पूर्व काशी शब्दोत्सव – 2023 के तीसरे दिन कुल पांच चर्चा सत्र आयोजित हुए.

तृतीय सत्र – अमृतकाल में भारत की चुनौतियां और अवसर

वरिष्ठ पत्रकार कंचन गुप्ता ने कहा कि इस वक्त भारत का अमृत काल चल रहा है. इस समय हमें अपने आप को प्रबल योग्य, प्रकृति योग्य होने और अपनी परंपरा को संजोने की जरूरत है. हमें वैश्विक दृष्टि से अपनी राष्ट्रधर्मिता को बचाए रखने की आवश्यकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 60 और 70 के दशक के समय देशवासियों को खिलाने के लिए अन्न नहीं था. लेकिन आज देश खाद्यान्नों पर आत्मनिर्भर है और दूसरे देशों को भी अन्न निर्यात कर रहा है. हमारा देश उद्योग सहित अन्य क्षेत्रों में भी विकास कर रहा है.

मुख्य वक्ता पद्मश्री ऋत्विक सान्याल ने कहा कि ऐसा भी समय था, जब हमारे देश में महामारी का प्रकोप था. तब महामारी के साथ बेरोजगारी की भी चुनौती थी. आज हमारे देश में युवा अपने तरीके से इनकम जनरेट करना सीख गए हैं. उन्हें सरकारी सहायता की कोई जरूरत नहीं पड़ रही है. पारंपरिक रूप से सबका सामान होना संभव नहीं है. 1947 से लेकर 2023 तक भारत एक बहुत लंबी यात्रा तय कर चुका है. आज समाज में जो विकृतियां उत्पन्न हुई हैं, उसमें सबसे बड़ा कारण गूगल का है. गूगल आज हमें जिस प्रकार से खाने-पीने नहाने की जानकारी देता है, उस प्रकार से आज हम तकनीकी पर हावी हो गए हैं. यह अमृतकाल भारत का दूसरा पुनर्जागरण है.

वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी ने कहा कि शब्दोत्सव, यह कोई कार्यक्रम नहीं बल्कि अमृतकाल का एक मंथन है. क्योंकि अमृत के लिए तय सीमा में मंथन करना होगा. अमृतकाल में भारत की संस्कृति का पुनः उदय हो रहा है.

रामानन्द दीक्षित आदि श्रोताओं ने वक्ताओं से अमृतकाल में भारत की चुनौतियां और अवसर के संदर्भ में विविध प्रश्न भी पूछे. वक्तओं ने उत्तर देकर उनकी जिज्ञासाओं को संतुष्ट किया.

चतुर्थ सत्र – सामाजिक न्याय

दलित चिंतक लेखक प्रो. राजकुमार फुलवरिया ने कहा कि वेदों में, उपनिषदों में, रामायण, महाभारत एवं अन्य भारतीय ग्रन्थों में अस्पृश्यता का उल्लेख नहीं है. डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने कहा है कि भारतीय ग्रन्थों में सिर्फ चार वर्णों का उल्लेख है. अस्पृश्य समाज को उन्होंने पांचवें वर्ण की संज्ञा दी. उन्होंने कहा कि अस्पृश्यता इस्लामिक शासन के प्रभाव से आयी. जिन लोगों ने हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा, तथा धर्म की रक्षा के लिए विधर्मियों के यहां सफाई और अन्य सेवाएं दी. वे ही लोग समाज और परिवार के लिए अस्पृश्य हुए. यह विभेद मिटना चाहिए. भारतीय परंपरा में सह अस्तित्व एवं सबके कल्याण की बात है. इसलिए हमें समरस समाज बनाने के लिए इस भेद-भाव को समाप्त करना चाहिए.

उन्होंने कहा कि सामाजिक न्याय पश्चिम के समाज की मांग है क्योंकि वहां समाज में बिखराव है. भारतीय समाज में प्राणी मात्र के लिए न्याय एवं चिंतन की व्यवस्था है. इसलिए यहां पश्चिम के मॉडल पर सामाजिक संदर्भों की चर्चा उचित नहीं है.

गोविन्द बल्लभपन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद के निदेशक प्रो. बद्रीनारायण ने कहा कि ने कहा कि वर्तमान समय में सामाजिक न्याय सिर्फ सरकारी जिम्मेदारी बनकर रह गया है. सामाजिक न्याय का विचार अभी पूर्ण रूप से समाज में प्रसारित नहीं हो सका है. इसे व्यापक बनाने की आवश्यकता है. धीरे-धीरे सामाजिक परिवर्तन हो रहा है. भविष्य में सामाजिक न्याय का व्यवस्थित स्वरूप सामने आ सकेगा.

लेखक डॉ. गुरू प्रकाश पासवान ने कहा कि भारत में कभी भी भेद-भाव को मान्यता नहीं थी. विदुर दासी पुत्र थे, किन्तु उन्हें राज्य व्यवथा में स्थान मिला था. इसी प्रकार अनेकों उदाहरण हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि प्राचीन भारत में अस्पृश्यता नहीं थी. प्रतिभा को सम्मान प्राप्त था. आज अमृत काल के समय में सामाजिक न्याय की बात प्रासंगिक है. हमें इस गुलामी की मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है. उन्होंने अंत्योदय की बात करते हुए बाबा साहब आम्बेडकर और स्त्री विमर्श की चर्चा की. उन्होंने कहा कि समाज के वंचितों को जिन लोगों ने ठगने का कार्य किया है. इस अमृतकाल में उनकी दुकान बन्द करने का समय आ गया है. वर्षों से जिन महापुरूषों को भूला दिया गया था, आज उनका महिमा मंडन सामाजिक न्याय की देन है.

पद्मश्री एंव सत्र की अध्यक्ष अजीता श्रीवास्तव ने कहा कि श्रीरामचरितमानस सामाजिक न्याय का श्रेष्ठ ग्रंथ है. भारत में सामाजिक न्याय एवं सद्भाव की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है. यह काशी श्रेष्ठ जगह है. जहां पर समय – समय पर भारत ही नहीं, दुनिया को प्रकाश मिला.

पंचम सत्र – भारतीयता के कुशल चितेरे (वासुदेव शरण अग्रवालविद्यानिवास मिश्रकुबेरनाथ राय)

इतिहासकार एंव प्रसिद्ध लेखक प्रो. मारूति नंदन तिवारी ने कहा कि प्रो. वासुदेव शरण अग्रवाल कर्मयोगी दृढ निश्चयी, भारतीय कला एवं संस्कृति शोध के अप्रतिम लेखक थे. उन्होंने ने अपनी डायरी के पन्नों में लिखा है कि मन का दृढ़ निश्चय शक्ति ही मनुष्य का प्राण है. प्रो. वासुदेव जी ने कादंबरी, मनुस्मृति और कालीदास के ग्रंथों पर सांस्कृतिक अध्ययन किया. वे शब्द के चितेरे तो थे ही कला के निःशब्द भाव के अद्भुत चितेरे भी थे.

लेखिका समीक्षक एवं मीडिया विशेषज्ञ दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की प्रो. कुमुद शर्मा ने पंडित विद्यानिवास मिश्र के निबंधों को सांस्कृतिक बोध का निबंध बताया. संस्कृति के व्यापक आयाम हैं. संस्कृति साहित्य के माध्यम से बलशाली होती है. संस्कृति निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. पूरे परिवेश को आत्मसात करना ही संस्कृति है. इस देश की संस्कृति भागीरथ और गोविंद हैं, असंख्य वनवासी है, मनुष्य और मनुष्य के व्यवहार का सेतु है. पंडित विद्यानिवास जी के निबंधों में परंपरा बंधन नहीं था.

लेखक डॉ. राम रघुवंशमणि शुक्ल ने कुबेर नाथ राय के साहित्य को चिन्मय भारत का दिग्दर्शन बताया. कुबेर नाथ राय जी की रचनाएं सबसे ज्यादा विस्मृत रचनाएं हैं. उन्होंने उनकी रचनाओं को नाटक, रूपक और पुराने चिंतन संदर्भ को बताया.

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय व्याकरण विभाग के अध्यक्ष प्रो. रामनारायण द्विवेदी ने कहा कि हम काशी में शब्दोत्सव मना रहे हैं. काशी सर्व विद्या की राजधानी है. काशी की महिमा है कि इस कार्यक्रम का नाम शब्दोत्सव है. शब्द को ब्रह्म माना जाता है. साहित्यकार शब्द के महारथी होते हैं. भारतीय भाषाओं को एक संस्कृति की पुत्रियों के रूप में माना जा सकता है.

नृत्यार्पण – समापन सत्र में भरतनाट्यम व गायन की प्रस्तृति से कलाकारों ने समा बांधा. बनारस घराने की माला होम्बल के नेतृत्व में नृत्य, प्रेमचन्द्र होम्बल के नेतृत्व में साक्षी सिन्हा ने गायन प्रस्तृत किया. कार्यक्रम में मृदंगम् पर ए. विश्वनाथम् पंडित व बासुरी पर अभिषेक कुमार ने साथ दिया.

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