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जैतो मोर्चा – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम इतिहास - ବିଶ୍ୱ ସମ୍ବାଦ କେନ୍ଦ୍ର ଓଡିଶା

जैतो मोर्चा – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का स्वर्णिम इतिहास

जैतो मोर्चा’ गंगसर साहिब सिक्खों द्वारा अहिंसात्मक पूर्ण एवं शांतिपूर्ण किये भारतीय स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन का स्वर्णिम इतिहास है. 21 फरवरी, 2024 को जैतो मोर्चा आंदोलन के 100 वर्ष पूर्ण हुए हैं. यह एक साहसपूर्ण संघर्ष का इतिहास है जो सिक्खों द्वारा अंग्रेजों से अपनी संस्कृति व धार्मिक स्थानों को बचाने के लिए अहिंसात्मक रूप से किया गया था. अंग्रेजों ने पंजाब में अपना शासन स्थापित करने के लिए बहादुर समुदाय को कुचलने को अपनी प्राथमिकता माना.

अंग्रेजों ने सिक्खों पर अत्याचार किये, जिसके विरोध में सिक्खों ने संगठन बनाए और इन संगठनों ने जैतो मोर्चा आंदोलन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह सिक्खों और अंग्रेजों के बीच मुख्य संघर्ष था. नाभा रियासत के महाराजा रिपुदमन सिंह सिक्खों के बीच बहुत लोकप्रिय थे, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें हटाने के लिए 9 जुलाई, 1923 को महाराजा रिपुदमन को जबरन हटाकर उनके नाबालिग पुत्र को गद्दी पर बिठाना चाहा.

5 अगस्त, 1923 को शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी नाभा द्वारा आयोजित एक सभा में सहानुभूति प्रस्ताव पारित किया. जिसमें कहा – सभी उचित और शांतिपूर्ण तरीकों से महाराजा रिपुदमन सिंह के साथ हुए अन्याय को दूर किया जाए.

इस संकल्प पर अमल करते हुए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने 9 सितम्बर, 1923 को ‘नाभा दिवस’ मनाने का निर्णय लिया.

सिक्ख संगत द्वारा गांव-गांव धार्मिक दीवान, नगर कीर्तन और महाराजा रिपुदमन सिंह के साथ हुए अन्याय को दूर करने के लिए अरदास में शामिल होने की अपील की गई. और इस तरह पूरे उत्साह के साथ नाभा दिवस हर जगह बड़े जोश के साथ मनाए जाने की तैयारियां शुरू हो गईं. सिक्ख संगत ने 25, 26 व 27 अगस्त, 1923 को नाभा के गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब, जैतो में दीवान सजाने और श्री अखंड पाठ साहिब करने का निर्णय लिया. अंग्रेजों ने कार्यक्रम में विघ्न डालने के लिए सिक्खों के नामों की एक सूची तैयार की और लंगर चलाने वाली संगत को डराया.

साथ ही नाभा रियासत के सिक्खों को परेशान भी किया. प्रबंधकों ने हालात खराब होते देख लंगर की सेवा के लिए दीवान में अपील की, जिसे स्वीकार करते हुए सरदार नंद सिंह (रियासत फरीदकोट) ने लंगर का प्रबंध करने की पेशकश की. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी द्वारा पंथ को की गई अपील के कारण 9 सितंबर, 1923 को ‘नाभा दिवस’ मनाते हुए सिक्ख रियासतों और पंजाब के लगभग सभी शहरों में नगर कीर्तन निकाले गए, दीवान सजाए गए, प्रस्ताव पारित किए गए और अरदास की गई. जैतो मंडी में भी नगर कीर्तन निकाला गया और गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब में दीवान सजाकर श्री अखंड पाठ साहिब आरंभ किये गये.

इस समय नाभा राज्य का प्रशासन ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त श्री विल्सन जॉनस्टन के अधीन था. 9 सितंबर, 1923 को नगर कीर्तन में भाग लेने वाले सिक्ख अकालियों को गिरफ्तार कर लिया गया. 14 सितंबर, 1923 को ब्रिटिश सैनिकों ने सिक्खों के दीवान में घुसकर सेवादारों सहित सभी उपस्थित संगत को गिरफ्तार कर लिया. उन्होंने श्री अखंड पाठ साहिब की सेवा में बैठे ज्ञानी इंदर सिंह को भी बांह से पकड़कर नीचे गिरा दिया और घसीटते हुए ले गए. यह जानकारी सभी जगह फैल गयी, जिसके बाद सिक्खों ने एकत्रित होकर विरोध किया.

शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने अपने सदस्यों के अलग-अलग समय पर तीन समूह गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब, जैतो भेजे. प्रत्येक समूह के सदस्यों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. यह देखकर संगत ने प्रतिदिन 25-25 सिक्खों का जत्था गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब, जैतो भेजने का निर्णय लिया. ऐसा पहला समूह 15 सितम्बर, 1923 को श्री अकाल तख़्त साहिब से पैदल रवाना हुआ. प्रतिदिन 25-25 सिक्खों को जैतो भेजने पर कोई संतोषजनक परिणाम न देखकर एक बार तो पूरा देश गहरी सोच में पड़ गया, लेकिन गहन विचार के तुरंत बाद शिरोमणि कमेटी ने 25 की बजाय 500-500 सिक्खों को जैतो भेजने का निर्णय लिया. इस निर्णय के तहत 9 फरवरी, 1924 को गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब, जैतो में श्री अखंड पाठ साहिब प्रारम्भ करने के लिए निकल पड़े. कई दिन चलने के बाद 20 फरवरी, 1924 को शहीदी जत्था अपने अंतिम चरण में पहुँच गया. फरीदकोट के बरगाड़ी गांव पहुंचकर 21 फ़रवरी, 1924 को सुबह ‘आसा दी वार’ का कीर्तन और दीवान खत्म करके जत्था जैतो की ओर चल पड़ा, जो 5-6 मील की दूरी पर था.

अंग्रेजों के अत्याचारों के बावजूद 500-500 सिक्खों के 13 अन्य शहीदी जत्थे जैतो पहुंचे और गिरफ्तारियाँ दीं. गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब की ओर जाने वाली सड़क पर कंटीले तार लगा दिए गए थे और भारी पुलिस तैनात थी. गुरुद्वारे के पास किले पर मशीनगनें लगी हुई थीं और ब्रिटिश सेना व पुलिस जगह-जगह बंदूकें ताने खड़ी थीं. शहीदी जत्था गुरुद्वारा श्री टिब्बी साहिब से लगभग 150 गज पीछे था, जहां पर एक अंग्रेज अधिकारी ने जत्था को आगे बढ़ने से रोका और कहा, “रुको, आगे मत बढ़ो. नहीं तो बंदूक चल जाएगी, गोली चल जाएगी”. सभी ने यह आदेश सुना, लेकिन जत्था नहीं रुका और गुरुद्वारा श्री टिब्बी साहिब की ओर लगातार बढ़ता रहा. यहां तक कि जब एक मां द्वारा ले जाए जा रहे एक बच्चे की गोली लगने से मौत हो गई तो उस मां ने बच्चे के शव को जमीन पर लिटा दिया और अपने साथियों के साथ आगे बढ़ती चली गई, हालाँकि, इसके तुरंत बाद उसकी भी गोली मारकर हत्या कर दी गई. और वह भी बलिदान हो गई. इसके बावजूद भी जत्थे के किसी भी सिक्ख ने शांति भंग नहीं की. अंग्रेज अधिकारी यह देखकर सेना की ओर दौड़ा और सेना को गोली चलाने का आदेश दिया. आदेश का पालन करते हुए तीनों तरफ से गोलीबारी शुरू हो गयी. कुछ देर के अंतराल के बाद फिर गोलियाँ चलनी शुरू हो गयीं. ये गोलीबारी पांच मिनट तक निरंतर चलती रही, लेकिन सिक्खों का जत्था शांतिपूर्वक, साहस और शीतलता के साथ आगे बढ़ता गया. इस गोलीबारी में इतिहास के अनुसार, लगभग 300 सिक्ख घायल हुए एवं 100 से अधिक सिक्खों ने शहीदियाँ प्राप्त कीं. गोलीबारी बंद होने तक संगत गुरुद्वारा श्री टिब्बी साहिब पहुँच चुकी थी. इसके बाद जत्थे के घायल और शहीद सिक्खों को गुरुद्वारा साहिब में लाने के प्रयास शुरू हो गए.

जैतो के गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब में हुई इस दर्दनाक घटना से न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी सिक्खों में आक्रोश की लहर फैल गयी. जैतो के इस मोर्चे में कलकत्ता से एक जत्थे के अलावा, 11 सिक्खों सहित एक जत्था कनाडा से आया, दो जत्थे चीन से आए, एक शंघाई से और दूसरा हांगकांग से. सिक्खों में गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब जाने और श्री अखंड पाठ साहिब जी शुरू करने का उत्साह और भी बढ़ गया. परिणामस्वरूप, कुल 17 शहीदी जत्थों ने क्रमिक रूप से मार्च किया और इस मोर्चे में अंततः सफल हुए. सत्रहवाँ शहीदी जत्था 27 अप्रैल, 1925 को श्री अकाल तख्त साहिब से लायलपुर होते हुए पैदल जैतो की ओर निकला. रास्ते में सिक्खों को सूचना मिली कि ब्रिटिश सरकार ने इस संबंध में सभी प्रतिबंध हटा दिए हैं. यह जत्था गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब जैतो में पहुंचा और इस प्रकार वहां पहला श्री अखंड पाठ साहिब आरंभ किया.

गुरुद्वारा श्री गंगसर साहिब, जैतो में श्री अखंड पाठ साहिब को सभी प्रतिबंधों से मुक्त करके नए सिरे से शुरू करने के लिए सिक्खों को एक वर्ष और दस महीने तक अथक प्रयास करना पड़ा. इस संघर्ष के दौरान, सैकड़ों सिक्ख बलिदान हुए, हजारों सिक्ख घायल हो गए, कई विकलांग हो गए. कई सिक्खों की संपत्ति और घर ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर लिए गए और उन्हें उनकी संबंधित रियासतों से निर्वासित कर दिया गया. कई सिक्ख सरदारों के पद भी छीन लिये गये. इस पूरे संघर्ष के दौरान सिक्खों को जेलों में जिन कठिनाइयों, तसीहों एवं अनेक प्रकार की यातनाओं का सामना करना पड़ा, उनका पूरी तरह वर्णन करना भी संभव नहीं है.

पंजाब के गर्वनर सर मेल्कॉम हैली अंग्रेज शासक द्वारा सिक्खों को जैतो में श्री अखंड पाठ साहिब करने की अनुमति देने के मुद्दे पर सरकार, पंडित मदन मोहन मालवीय और भाई जोध सिंह के माध्यम से बातचीत शुरू करने के लिए तैयार थी. परंतु ब्रिटिश सरकार महाराजा रिपुदमन सिंह को अपने राज्य में पुनः स्थापित करने की इच्छुक नहीं थी. लेकिन इसी बीच सरकार ने 7 जुलाई, 1925 को सिक्ख गुरुद्वारा बिल सर्व सहमति के साथ पारित कर दिया.

इस जैतो मोर्चे के संघर्ष के कारण आगे जाकर ऐतिहासिक सकारत्मक परिणाम निकले. सारे बंदियों को रिहा कर दिया गया. सारी पाबंदियां हटा दी गईं और सिक्खों द्वारा 101 श्री अखंड पाठ साहिब की संपूर्णता 6 अगस्त, 1925 को की गई.

यहां इतना कहना पर्याप्त होगा कि सिक्खों ने देश और धर्म की रक्षा करते हुए अंग्रेजों के विरूद्ध साहस के साथ पहला शांतिपूर्ण आंदोलन करते हुए सफलता प्राप्त की. गुरु साहिब के प्रेम के मार्ग पर चलते हुए सिक्खों ने ब्रिटिश सरकार को यह संदेश भी दिया कि सिक्ख युद्धों में साहस दिखाने के साथ-साथ शांतिपूर्ण विरोध भी व्यक्त कर सकते हैं और फ़तेह प्राप्त कर सकते हैं. देश और धर्म की रक्षा के लिए सिक्खों द्वारा दिये गये इस बलिदान के सम्मान में भारतवासी सदैव नतमस्तक रहेंगे.

जैतो मोर्चे की सफलता जहां एक तरफ अंग्रेजों की करारी हार थी, वहीं भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर रणनीति तय करने की प्रेरणा मिली.

नीरू सिंह ज्ञानी

निदेशक, पंजाबी साहित्य अकादमी

(लेखिका नीरू सिंह ज्ञानी के नानाजी स्व. सरदार जमैत सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने जैतो

मोर्चा आंदोलन में हिस्सा लिया था)

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