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ज्ञान से स्वयं के साक्षात्कार का अवसर गुरु पूर्णिमा - ବିଶ୍ୱ ସମ୍ବାଦ କେନ୍ଦ୍ର ଓଡିଶା

ज्ञान से स्वयं के साक्षात्कार का अवसर गुरु पूर्णिमा

रमेश शर्मा

गुरु पूर्णिमा अर्थात अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर यात्रा और व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक स्वाभिमान जाग्रत कराने वाले परम् प्रेरक के लिये नमन् दिवस. जो हमें अपने आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्म गौरव का भान कराकर हमारी क्षमता के अनुरूप जीवन यात्रा का मार्गदर्शन करे, वह गुरु है. वह मनुष्य भी हो सकता है, और कोई प्रतीक भी.

संसार में कोई अन्य प्राणी भी, ज्ञान दर्शन कराने वाला कोई दृश्य, कोई घटना, कोई ग्रंथ या ध्वज जैसा भी कोई प्रतीक हो सकता है. अपने ज्ञान दाता के प्रति आभार और उनके द्वारा दिये गये ज्ञान से स्वयं के साक्षात्कार करने की तिथि है – गुरु पूर्णिमा.

आषाढ़ माह की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने का भी एक रहस्य है. भारत में प्रत्येक तीज त्यौहार के लिये तिथि का निर्धारण साधारण नहीं होता, प्रत्येक तिथि का अपना संदेश होता है. गुरु पूर्णिमा की तिथि का भी एक संदेश है. इसका निर्धारण एक बड़े अनुसंधान का निष्कर्ष है.

वर्ष में कुल बारह पूर्णिमाएँ आतीं हैं. इन सभी में केवल आषाढ़ की पूर्णिमा ऐसी है, जिसमें चंद्रमा का शुभ्र प्रकाश धरती पर नहीं आ पाता या सबसे कम आता है. वर्षा के बादल चंद्रमा के प्रकाश का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं. एक प्रकार से चंद्रमा को ढंक लेते हैं. शुभ्र चंद्र-प्रकाश धरती पर आने का प्रयत्न तो करता है, पर बादल अवरोध बन जाते हैं. यदि गुरु का संबंध केवल ज्ञान और प्रकाश से होता तो अश्विनी मास की शरद पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना जा सकता था. चूँकि, इस पूर्णिमा को धरती पर आने वाला चन्द्र प्रकाश सबसे धवल और मोहक होता है. लेकिन इसके ठीक विपरीत आषाढ़ की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा माना गया. इसका संदेश ज्ञान पर आने वाली भ्रान्तियों को दूर करना है. आषाढ़ की पूर्णिमा पर चन्द्र प्रकाश को रोकने वाले बादल स्थाई नहीं होते, वह अवरोध मौलिक नहीं होता, कृत्रिम होता है, अस्थाई होता है, जो समय के साथ छंट जाता है. ठीक इसी प्रकार मनुष्य की आँखों पर अज्ञान के बादल छाए रहते हैं. भीतर आत्मा तो परमात्मा का अंश है, जो ज्ञान और प्रकाश का पुंज है. पर मनुष्य का अज्ञान, अशिक्षा और भ्रांत धारणाओं की परतें आत्मा को ढक लेती हैं. जिससे मनुष्य की प्रगति अवरुद्ध होने लगती है और उसके कुमार्ग पर चलने की आशंका हो जाती है. जिस प्रकार पवन देव बादलों को उड़ा ले जाते हैं, धरती और चन्द्रमा के बीच का अवरोध समाप्त कर देते हैं, और शुभ्र चंद्र प्रकाश पृथ्वी की मोहक छवि को पुनः उभारने लगता है. उसी प्रकार मनुष्य के ज्ञान बुद्धि पर पड़े अवरोध स्वयं नहीं हटते, उन्हें हटाने के लिये कोई प्रयत्न चाहिए, कोई निमित्त चाहिए. जो अज्ञान की परत का क्षय करके स्वज्ञान का भान करा सके. अज्ञान का हरण कर स्वज्ञान के इस जाग्रत कर्ता को ही गुरु कहा गया है. यह गुरु की विशेषता होती है कि अज्ञानता के अंधकार की सभी परतें हटा कर उसे उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराता है  मनुष्य की विशिष्टता को नए आयाम, नयी ऊँचाइयाँ देने में मार्गदर्शन करता है. आषाढ़ की पूर्णिमा इसी का प्रतीक है.

शिक्षक और गुरु में अंतर

गुरुत्व परंपरा में एक बात महत्वपूर्ण है. शिक्षक, आचार्य, गुरू और सद्गुरु में अंतर होता है. शिक्षक और आचार्य गुरु तुल्य तो होते हैं, पर गुरु नहीं होते. एक तो शिक्षक अस्थाई होते हैं और वे केवल निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार चलते हैं. शिक्षा और ज्ञान में अंतर है. शिक्षा केवल सैद्धांतिक होती है. यदि पाठ्यक्रम में कुछ असत्य है, आधारहीन है, तब भी शिक्षक उसी अनुसार अपना कार्य करते हैं. जबकि आचार्य इस पाठ्यक्रम में व्यवहारिक पक्ष को भी सम्मिलित कर व्यक्तित्व निर्माण पर भी ध्यान देते हैं. लेकिन गुरु इनसे बहुत आगे है.

गुरु पहले शिष्य की प्राकृतिक प्रतिभा क्षमता रुचि का आकलन करते हैं, उसकी मौलिक प्रतिभा को जाग्रत करते हैं. फिर उसके अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्धारण करते हैं. युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों थे तो एक ही कक्षा में, पर गुरु द्रोणाचार्य ने तीनों को उनकी प्रतिभा और क्षमता के अनुरूप अलग-अलग अस्त्र शस्त्र में प्रवीण बनाया. गुरू सदैव अपने शिष्य की रुचि और प्राकृतिक क्षमता को ध्यान में रखकर शिक्षा और ज्ञान दोनों का निर्धारण करता है.

एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल चेहरे की बनावट, बोली, रुचि, पसंद नापसंद या डीएनए में ही अलग नहीं होता. वह प्राकृतिक विशेषताओं में भी पूरी तरह अलग होता है, विशिष्ट होता है. प्रकृति ने प्रत्येक व्यक्ति को उसकी प्रतिभा में विशिष्ट बनाया है. व्यक्ति की यह मौलिक प्रतिभा क्या है, क्षमता क्या है, मेधा क्या है और प्रज्ञा कैसी है. इसका आकलन गुरु करते हैं. और उस व्यक्ति को उसके मूल तत्व का आभास कराते हैं, उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराते हैं. जिससे वह अपने जन्म जीवन को योग्य बनाता है.

गुरु केवल लौकिक जगत के ज्ञान विज्ञान तक रहते हैं. एक शिष्य संसार में कैसे श्रेष्ठ बने, संसार में कहाँ क्या है? संसार की प्रकृति, प्राणी और पदार्थ सबसे कैसे तादात्म्य स्थापित हो, यह सब ज्ञान गुरु देते हैं. लेकिन सद्गुरू लौकिक और अलौकिक दोनों का मार्गदर्शन करते हैं. संसार के आगे क्या है? दृश्य जगत के आगे अदृश्य की शक्ति क्या है? यह ज्ञान सद्गुरु से मिलता है. अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य हैं. पर जब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया, तब अर्जुन ने कहा – “मुझे सद्गुरु की भाँति उपदेश करें” और तब ही भगवान श्रीकृष्ण ने विभूति और विराट से परिचय कराया.

इस प्रकार संसार में जीने योग्य बनाने, सफलता प्राप्त करने, लौकिक जगत को समझने और अलौकिक जगत का साक्षात्कार कराने वाली विभूति को गुरु कहा गया और उनके प्रति आभार प्रकट करने की तिथि है गुरु पूर्णिमा.

गुरु पूजन परंपरा का आरंभ

इस दिन शिष्य अपने गुरु की अभ्यर्थना करते हैं, वंदना करते हैं. यह एक प्रकार का पूजन है. गुरु पूजन की यह परंपरा कब से आरंभ हुई, यह नहीं कहा जा सकता है. भारतीय वांड्मय में पीछे जितनी दृष्टि जाती है, वहाँ गुरु परंपरा के आख्यान मिलते हैं. परम् गुरु भगवान् शिव को माना गया है. आदि गुरु महर्षि कश्यप, महर्षि भृगु, देव गुरु बृहस्पति और दैत्य गुरु शुक्राचार्य माने गए हैं. इसके बाद विभिन्न ऋषियों का राजकुलों के गुरु के रूप में उल्लेख मिलता है. राजकुलों में बीच-बीच में गुरु बदले भी हैं. यह वर्णन भी पुराणों में है. पौराणिक आख्यानों में केवल गुरु परंपरा का ही उल्लेख नहीं, अपितु ऋषियों की ज्ञान सभा होने के भी उल्लेख हैं.

आरंभिक काल में ऐसी ज्ञान सभाएं शिव निवास कैलाश पर्वत पर होती थीं. जिनमें ऋषिगण भाग लेते थे, वे शिवजी के सामने समाज की स्थिति का चित्रण करते थे. फिर भगवान् शिव समाधान सूत्र दिया करते थे. इसके बाद ऐसी ज्ञान सभाएं काशी में होने लगीं. ये सभाएं भी शिवजी के सभापतित्व में ही होती थीं. इसलिये भगवान शिव को ही आदि गुरु या परम् गुरु कहा गया है. आगे चलकर केन्द्र नैमिषारण्य बना. यहाँ आचार्य प्रमुख महर्षि भृगु थे और यहीं से सभापतित्व का दायित्व ऋषियों के हाथ में आया.

इन सभाओं का सप्त ऋषियों में से कोई अथवा उनके द्वारा आमंत्रित अन्य प्रमुख ऋषि द्वारा सभापतित्व करने की परंपरा आरंभ हुई. ये सभाएं चतुर्मास की पूरी अवधि में हुआ करतीं थीं जो आषाढ़ की पूर्णिमा से आरंभ होकर शरद पूर्णिमा तक निरंतर चला करतीं थीं. इसलिये आज भी गुरु परंपरा के प्रत्येक संत इस अवधि में अपने मूल आश्रम में ही निवास करते हैं.

नैमिषारण्य की इस ज्ञान सभा परंपरा के शिथिल होने के बाद क्षेत्रीय सभाओं की परंपरा आरंभ हुई और इसी के साथ स्थानीय स्तर पर गुरु वंदन पूजन आरंभ हुआ. यद्यपि शंकराचार्य पीठ, महामंडलेश्वर पीठ आदि प्रमुख गुरु स्थानों पर आज भी चतुर्मास में निरंतर व्याख्यान होने की परंपरा है.

पुराणों में आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु महत्ता स्थापना का पहला विवरण त्रेता युग के आरंभ में मिलता है. इसी तिथि को भगवान् शिव ने नारायण के अवतार भगवान् परशुराम जी को शिष्य के रूप में स्वीकार किया था. भगवान् शिव के भक्त तो सभी हैं, पर शिष्य अकेले परशुराम जी. और इसी तिथि से भगवान् अमरनाथ के दर्शन आरंभ होने परंपरा भी बनी. वशिष्ठ परंपरा में इस तिथि को महर्षि व्यास का जन्म हुआ, जिन्होंने वेदों का भाष्य तैयार किया. इस प्रकार इस तिथि का महत्व बढ़ता गया.

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