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देश अपने प्रतीक चिन्हों को उनके ‘स्व’ के आधार पर चुनते हैं - ବିଶ୍ୱ ସମ୍ବାଦ କେନ୍ଦ୍ର ଓଡିଶା

देश अपने प्रतीक चिन्हों को उनके ‘स्व’ के आधार पर चुनते हैं

राजा भोज की नगरी में नर्मदा साहित्य मंथन के तृतीय सोपान का उद्घाटन

धार. नर्मदा साहित्य मंथन का तृतीय सोपान माँ नर्मदा के पूजित जल कलश की स्थापना से प्रारंभ हुआ. विश्व संवाद केंद्र के सह संयोजक शंभु मनहर एवं विश्व संवाद केंद्र के अध्यक्ष दिनेश गुप्ता ने पूजित जल कलश की स्थापना. इसके बाद नर्मदाष्टक का गायन हुआ. उद्घाटन सत्र का प्रारंभ माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के कुलगुरु डॉ. केजी सुरेश के मुख्य आतिथ्य, पद्मश्री भगवती लाल  राजपुरोहित, प्रज्ञा प्रवाह के अखिल भारतीय संयोजक जे. नंदकुमार की गरिमामय उपस्थिति में दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ.

नर्मदा साहित्य मंथन के संयोजक डॉ. मुकेश मोढ़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा एवं परिकल्पना के विषय में जानकारी दी. मुख्य अतिथि डॉ. केजी सुरेश ने कहा कि राजा भोज द्वारा रचित शास्त्र पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए जीवन के प्रत्येक आयाम को समझने के लिए आदर्श है. पद्मश्री राजपुरोहित ने राजा भोज के साहित्य, शासन एवं वास्तुशिल्प पर विस्तार से प्रकाश डाला. राजा भोज ने लगभग 55 वर्ष तक शासन किया और साहित्य, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्प, राजनीति जैसे विषयों पर लगभग 84 ग्रंथ लिखे.

उद्घाटन सत्र पर मुख्य वक्ता जे. नंदकुमार ने भारत के स्व की अवधारणा पर अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि राष्ट्र स्वयं को प्रकाश के मार्ग पर चलाने का एक उपकरण है. सत्य, शुचिता, धर्म और कर्म भारत के ‘स्व’ के निर्माण का आधार है. देश अपने प्रतीक चिन्हों को उनके ‘स्व’ के आधार पर चुनते हैं. चाइना ने ड्रैगन को चुना क्योंकि वह आक्रमण का समर्थक है, जबकि भारत का चिन्ह गाय है जो शांति के प्रतीक के रूप में स्थापित है.

प्रथम सत्र स्व आधारित शिक्षा पद्धति विषय पर आधारित रहा. मुकुल कानिटकर ने कहा कि भारत को निरक्षर करने का काम अंग्रेजों ने किया. स्व आधारित शिक्षा के आधार पर ही हम भारत को आर्थिक रूप से संपन्न कर पाएंगे. छात्र यदि परिणाम की बजाय प्रयत्न पर ध्यान केंद्रित करेंगे तो ही सफल हो पाएंगे. उन्होंने माता-पिता से आग्रह किया कि वे अपने बच्चों से प्रेम करते हैं तो उन्हें अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में ना पढ़ाएं. शिक्षण व्यवस्था में यदि परिवर्तन करना है तो वह समाज के माध्यम से ही संभव है.

द्वितीय सत्र वैश्विक परिदृश्य पर वर्तमान भारत विषय पर केंद्रित रहा, जिसमें स्वामी विज्ञानानन्द ने चर्चा की. उन्होंने कहा कि देश के स्व को मज़बूत करने के लिए अर्थव्यवस्था, तकनीक, शिक्षा और रक्षा को मज़बूत करने की आवश्यकता है. 18 लाख से अधिक विद्यार्थी हर साल शिक्षा प्राप्त करने के लिए देश से बाहर जाते हैं, जिनके साथ देश का कौशल भी देश से बाहर जा रहा है. इनके देश में रहने से अर्थव्यवस्था मज़बूत होगी.

तृतीय सत्र का विषय भारत के आत्मबोध का स्वरूप और आधार विषय पर रहा. विषय परिवर्तन सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं समाज वैज्ञानिक रामेश्वर मिश्र पंकज ने किया. उन्होंने कहा कि अंग्रेज भारत को लूटने के उद्देश्य से आये थे. अंग्रेज़ी के आने के पूर्व भारत के इतिहास में कहीं भी ग़ुलामी का वर्णन नहीं है. हमें आत्मबोध के लिए शास्त्रों की शरण में जाना होगा. राज्य विचारधारा से नहीं आदर्शों से श्रेष्ठ बनेगा. आत्मबोध की साधना से राजा तेजस्वी होता है. जानता की भावनाओं का सम्मान ही लोकतंत्र का मूल है.

भारत में समाजवाद और सेकुलरिज्म की कोई परिभाषा नहीं दी गई, यदि इसकी परिभाषा हिन्दू द्रोह ही है तो इसे हटाना ही चाहिए. सेकुलरिज्म केवल ईसाई धारणा है, पश्चिमी देश भी सेकुलर नहीं हैं. वे ऑर्थोडॉक्स हैं, प्रोटेस्टेंट हैं या कैथोलिक हैं, भारत में सेकुलरिज्म घोषित करना ही पाप था.

चतुर्थ सत्र में जनजातीय समाज भ्रम और वास्तविकता विषय पर शिवगंगा अभियान झाबुआ के पद्मश्री मुकेश शर्मा ने विषय रखा. उन्होंने कहा कि जनजातीय समाज में परोपकार की परंपरा रही है, जिसका जीवंत प्रमाण हलमा परंपरा है. जिसके माध्यम से जल संरक्षण का एक बड़ा प्रकल्प झाबुआ में चल रहा है. पलायन जनजाति समाज की मजबूरी है, अन्यथा कोई अपनी जन्मभूमि छोड़कर नहीं जाता. जनजाति समाज में महिलाएं सशक्त हैं. भौतिक सुविधाएं कम होने के बाद भी उनका आर्थिक प्रबंधन अच्छा है. सामाजिक विषमता ही जनजाति समाज के पिछड़ेपन का मुख्य कारण है.

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