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हिन्दुत्व पर आधारित बिरसा मुंडा का जीवन व उलगुलान - ବିଶ୍ୱ ସମ୍ବାଦ କେନ୍ଦ୍ର ଓଡିଶା

हिन्दुत्व पर आधारित बिरसा मुंडा का जीवन व उलगुलान

आज धरती के आबा बिरसा मुंडा की जयंती है. उन्होंने अपने जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था. उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम. वे एक महान संस्कृति निष्ठ समाज सुधारक भी थे, वे संगीतज्ञ भी थे. उन्होंने एक वाद्य यंत्र का अविष्कार भी किया था जो अब भी बड़ा लोकप्रिय है. इसी वाद्ययंत्र को बजाकर पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य भी किया. बिरसा मुंडा की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को ईसाइयों के धर्मांतरण से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही. भगवान बिरसा केवल जनजातीय समाज के नहीं अपितु समूचे ग्राम्य भारतीय समाज के नायक और रक्षक थे. भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण व अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज. मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता व धनसंचय से दूर ही रहा है. बिरसा मुंडा भी मूलतः इसी जनजातीय समाज के थे. वीर बिरसा मुंडा ने “अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” अर्थात अपनी धरती अपना राज का नारा दिया था.

वीर शिरोमणि बिरसा का बलिदान दिवस यह स्मरण करने का अवसर है कि स्वतंत्र भारत में जनजातीय व वनवासी बंधुओं व उनकी संस्कृति के साथ क्य- क्या षड्यंत्र हो रहे हैं? षड्यंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत में फैलाया जा रहा आर्य व अनार्य का विघटनकारी वितंडा और मूल निवासी दिवस की विशुद्ध भ्रांतिपूर्ण अवधारणा.

तथ्य यह है कि भारत में जनजातीय समाज व अन्य जातियों की आकर्षक विविधता को विघ्नसंतोषी विघटनकारियों ने आर्य – अनार्य का वितंडा बना दिया. कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत में उतने ही प्राचीन हैं, जितने अनार्य का दर्जा दे दिये गए जनजातीय समाज के लोग. वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य और मूलनिवासी कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य व अनार्य का अर्थ होता है असभ्य. सच्चाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र व समाज को उपादेयता के विषय में किसी भी शेष समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है व अब भी चल रहा है.

यह तो अब सर्वविदित ही है कि इस्लाम व ईसाइयत दोनों ही विस्तारवादी धर्म हैं व अपने विस्तार हेतु अपने धर्म के परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षड्यन्त्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है. अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियों में विभेद उत्पन्न किया व द्रविड़ों को भारत का मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया.

संस्कृत के कथित ज्ञाता मैक्समूलर ने आर्यन इन्वेजन थ्योरी का अविष्कार किया. मैक्समूलर ने लिखा कि आर्य एक सुसंस्कृत, शिक्षित, बड़े विस्तृत धर्म ग्रन्थों वाली, स्वयं की लिपि व भाषा वाली घुमंतू, किंतु समृद्ध जाति थी. इस प्रकार मैक्समूलर ने आर्य इंवेजन थ्योरी के सफ़ेद झूठ का पौधा भारत में बोया, जिसे बाद में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने एक बड़ा वृक्ष बना दिया. यद्यपि बाद में 1921 में हड़प्पा व मोहनजोदाड़ो सभ्यता मिलने के बाद आर्यन थ्योरी को बड़ा धक्का लगा, किंतु अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति, झूठे इतिहास लेखन व षड्यन्त्र के बल पर इस थ्योरी को जीवित रखा. सबसे बड़ी खेद की बात यह कि अंग्रेजों के जाने के पश्चात भारत में एक बड़ा वर्ग ऐसा जन्मा जो कहने को तो भारतीय संतति ही है, किंतु उसकी मानसिकता भारत विरोधी है. यह वर्ग सेकुलर, नक्सलवादी, माओवादी, बुद्धिजीवी, प्रगतिशील, जनवादी, आदि आदि नामों से आपको समाज सेवा के नाम पर समाज व देश को तोड़ते हुये बड़ी सहजता से मिल जाएगा. सिंधु घाटी सभ्यता की श्रेष्ठता को छिपाने व आर्य द्रविड़ के मध्य विभाजन रेखा खींचने की यह कथा बहुत विस्तृत चली व अब भी इस कथित विघ्नसंतोषी वर्ग द्वारा चलाई जा रही है. आज आवश्यकता इस बात की है कि वनवासी समाज में घुसपैठ कर रहे इस कालनेमी वर्ग को पहचानना और उनके देशविरोधी, समाज विरोधी चरित्र पर ढके हुये छदम आवरण को हटाना.

कथित तौर पर जिन्हें आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया, उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है. दोनों ही शिव के उपासक हैं. एन्थ्रोपोलॉजिस्ट वारियर एलविन ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन में बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग हैं और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं. माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जामवंत, जटायु आदि आदि सभी जनजातीय बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे, जैसे दूध में शक्कर समरस होती है. प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है. मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन है जो समूचे मेवाड़ी हिन्दू समाज व जनजातीय समाज दोनों द्वारा किया जाता है. बिरसा मुंडा, टंट्या भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर शहीद बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि आदि कितने ही ऐसे वीर जनजातीय बंधुओं के नाम हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिये अर्पण कर दिया.

जब गजनी जैसा विदेशी आक्रांता हिन्दू आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था, तब अजमेर, नाडोल, सिद्धपुर पाटन, और सोमनाथ के समूचे प्रभास क्षेत्र में हिन्दू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था. गौपालन व गौ सरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है. और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिन्दुत्व आधारित ही है. गौ की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो, अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ, ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो, परधर्म से अच्छा स्वधर्म है, अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्ध रखो, गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो…. यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिये हैं.

आज जयंती पर क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा को नमन, जिन्होंने संपूर्ण हिन्दू समाज को विदेशी आक्रांताओं के अत्याचारों व धर्म परिवर्तन से न केवल बचाया, बल्कि कई अद्भुत परंपराओं से बांधकर एक समाज समरस नागरिक होने की प्रेरणा दी.

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