रतन शारदा
असहिष्णु और धर्म विरोधी बातें प्रकाशित करने के लिए बदनाम सेकुलर पत्रिका ‘कारवां’ ने 1 जुलाई 2023 को एक ऐसा लेख प्रकाशित किया जो उसकी इस दागदार छवि को और पुष्ट करता है. ‘द ग्रेट बिट्रेयल’ शीर्षक से प्रकाशित लेख में लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक व आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति भ्रामक बातें लिखीं, तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा और इतिहास को झुठलाया है.
कारवां के लेख में सेकुलर झूठ के उस जाल को तार-तार करते संदर्भ सहित तथ्य…..
कांग्रेस में अंत:र्कलह
एक ओर तो नेहरूवादी स्वतंत्रता आंदोलन का सारा श्रेय गांधी-नेहरू के अहिंसात्मक आंदोलन को देना चाहते हैं, वहीं वे डॉक्टर जी को हिंसा का मार्ग छोड़कर गांधी जी के अहिंसा के मार्ग पर आकर कांग्रेस में काम करने और फिर संघ को प्रारंभ करने के लिए कोसते हैं! दूसरी ओर नेता जी सुभाषचंद्र बोस गांधी जी से अलग होने और सैन्य मार्ग चुनने के लिए हाशिए पर कर दिए गए थे. तो क्या इनको लगता है, ये प्रमाण पत्र देंगे कि कौन स्वतंत्र संग्राम में था, कौन नहीं? जब नेता जी को कांग्रेस में अलग-थलग कर दिया गया और उन्होंने इस्तीफा दिया, तब उन्होंने अपना मार्ग निश्चित नहीं किया था. उस समय कांग्रेस में अंत:र्कलह चल रही थी. कांग्रेस ने 1942 में आकर ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन घोषित किया था और नेता जी ने 1943 में आजाद हिन्द फौज की कमान संभाली थी. वे हिटलर से भी मिले थे. ऐसे में उनकी भूमिका को कैसे देखा जाएगा?
स्वतंत्रता संग्राम को इस प्रकार टुकड़ों में प्रस्तुत करके हम इस महायज्ञ को नहीं समझ पाएंगे. यह वामपंथियों की एक समस्या है, क्योंकि वे अपराध बोध से ग्रस्त हैं. नए निशाने चुनते रहते हैं, ताकि कहीं उनके देश विरोधी, रूस और चीन के पिछलग्गू होने की बात सार्वजनिक न हो जाए.
यहां यह स्मरण कराना आवश्यक है कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया ने हैरतअंगेज सर्कस के इस काल में यह करतब किया. लेनिन के कथनानुसार,1927 में कॉमिनटर्न ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधी जी और उनके सभी समर्थकों को पूंजीपतियों का एजेंट घोषित कर दिया था. इसके अलावा ‘द रेड ब्लंडर्स: द कम्युनिस्ट्स हैव कनसिसटेंटिली बीट्रेड नेशनल इंटरेस्ट्स-टेलीग्राफ इंडिया’ में उनके कई कारनामों का उल्लेख है.
डांगे का माफीनामा, जो 1942 में पहले ‘भारत छोड़ो’ को समर्थन और विश्व युद्ध के बदलते मिजाज को देखते हुए हुआ था, अपने आका रूस के पाला बदलने के बाद, अंग्रेजों का समर्थन, कांग्रेसी नेताओं को पकड़वाने में सहायता और देश के साथ गद्दारी, ये सब तथ्य इतिहास में दर्ज हैं. भले ही ये चीजें आज आम जनता की आंखों के सामने से गायब हो गई हैं. 1942 में निजाम और कम्युनिस्टों ने इकट्ठे आकर अंग्रेजों का द्वितीय विश्व युद्ध में साथ दिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया. इसी लीक पर चलते हुए उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का समर्थन किया.
1942 में हैदराबाद में निजाम के साथ मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया. (पुस्तक – निजाम्स रूल अनमास्क्ड, लेखक – आचार्य केसर रेड्डी, पृष्ठ 67, संवित प्रकाशन) वे देश के आजाद होने के बाद, अपने आका स्टालिन के कहे को दोहराने लगे कि ‘यह बुर्जुआ आजादी है, सर्वहारा नहीं’, 1947 से 1951 तक, चार वर्ष स्वतंत्र भारत के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध किया. जिन नेता जी की डॉ. हेडगेवार से भेंट को लेकर हजारों शब्दों का कथन गढ़ा, उनके बारे में उन्हें यह तो याद ही होगा कि, उन्हें ‘तोजो का कु …’ कहते हुए शर्मनाक कार्टून बनाने वाले कम्युनिस्ट ही थे, कोई संघ स्वयंसेवक नहीं. 1962 में चीन के साथ खड़े होना कोई भूल नहीं है. आशा है कारवां इतिहास के इन पन्नों को भी उजागर करेगा.
अपमानजनक शब्द-प्रयोग
डॉक्टर हेडगेवार के कृतित्व को कमतर दिखाने के लिए कारवां के लेखक ने अत्यंत अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया है, जो कि नाना पालकर द्वारा वर्णित डॉक्टर जी के वर्णन से विचित्र तरीके से भिन्न है. निश्चित ही उसने कल्पना की उड़ान भरी होगी. किसी के शारीरिक गठन के आधार पर उसके व्यक्तित्व को परखा जा सकता है? इससे अधिक नस्लवादी सोच क्या हो सकती है?
डॉक्टर हेडगेवार के 1920 के भाषणों में झलकी उनकी उग्रता के बारे में नाना पालकर लिखते हैं कि, जेल ले जाते वक्त पुलिस के दुर्व्यवहार से खिन्न होकर डॉक्टर जी द्वारा उसे ट्रेन से नीच फेंक देने की बात सुनकर पुलिस अफसर डर गया और अपना बर्ताव ठीक कर लिया. सुप्रसिद्ध फिल्मकार भालजी पेंडारकर तो केवल उत्सुकतावश डॉक्टर जी से मिलने गए थे, और फिर जैसे उनके ही हो गए. परंतु सत्य से वामपंथियों का कोई लेना-देना रहा ही नहीं है. अत्यंत संकुचित दृष्टि वाले कारवां के लेखक उस समय के विदर्भ-नागपुर की सामाजिक उथल-पुथल को अपनी भ्रष्ट सोच के अनुसार, ‘नागपुर में ब्राह्मणवादी हलचल’ बताते हैं.
कारवां पत्रिका में लेखक डॉ. मुंजे की इटली यात्रा को ‘संघ की ओर से की गई यात्रा’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं. डॉ. मुंजे ने तब साधनहीन केशव बलिराम हेडगेवार को पढ़ाई पूरी करने में मदद की थी. डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए उन्होंने ही उन्हें कोलकाता भेजा था.
अनुशीलन समिति से उन्होंने ही उनका परिचय कराया था. डॉक्टर जी उनका अत्यंत आदर करते थे. परंतु रा.स्व. संघ के गठन के बाद डॉक्टर साहब अपने मार्ग पर चले, कई मौकों पर उन्होंने डॉ. मुंजे से असहमति व्यक्त की थी. जैसे,1920 में उन्होंने डॉ. मुंजे के साथ सत्याग्रह का नेतृत्व किया था. परंतु 1930 में मुंजे जी की इच्छा के विरुद्ध सत्याग्रह में हिस्सा लिया था.
हिन्दू महासभा के नेताओं की अपेक्षा थी कि संघ महासभा का तरुण दल बनेगा. परंतु डॉक्टर जी ने ऐसा नहीं किया. इससे हिन्दू महासभा में भारी नाराजगी थी. इसके कारण संघ को अत्यंत कटु शब्दों में उनकी निंदा सहनी पड़ी, परंतु डॉक्टर जी ने अथवा बाद में श्री गुरुजी ने भी कभी उसका प्रत्युत्तर नहीं दिया. डॉ. मुंजे के गोल मेज सम्मेलन में जाने का भी डॉक्टर जी ने समर्थन नहीं किया था. 1942 में संघ ने हिन्दू महासभा के विरुद्ध जाते हुए भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया. स्वयंसेवक जेल गए. भूमिगत नेताओं के रहने की व्यवस्था, अदालतों में उनके लिए वकालत करने जैसे कार्य किये. (पुस्तक – संघ और स्वराज, लेखक – रतन शारदा, पृष्ठ 43-47)
श्रीगुरुजी पर कटाक्ष
कारवां के लेखक को शायद लगा होगा कि अब वह डॉ. हेडगेवार के विरुद्ध अपने ‘तर्क’ रख चुके हैं, इसलिए आगे उन्होंने श्री गुरुजी के प्रति भी अपनी अज्ञानता दिखाई. लेखक का दावा है कि नेताजी से न मिलने के निर्णय में श्री गुरुजी का बहुत बड़ा हाथ था. जिन्होंने संघ का इतिहास पढ़ा है, वे जानते हैं कि श्री गुरुजी डॉक्टर जी के से आयु में बहुत छोटे थे. उनके लिए डॉक्टर जी की आज्ञा देव- आज्ञा समान थी. वे उनसे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने कहा, ‘एक बार डॉक्टर जी ने मुझे रास्ते में रोककर पूछा, क्या तुम ही माधव गोलवलकर हो? मैं केशव’. उस दिन से डॉ. साहब ने मुझे हमेशा के लिए बांध लिया.’ (पुस्तक – द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक – रंगाहरि, पृष्ठ 73) कारवां के लेखक से इतना ही कहना है कि वह रंगाहरि जी द्वारा लिखित श्री गुरुजी का चरित्र पढ़ते, तभी वह इस रिश्ते को समझ पाते. दरअसल वामपंथियों को श्री गुरुजी से विशेष दिक्कत है. अन्यथा 1940 में श्री गुरुजी के सरसंघचालक बनने को लेकर जब संघ और उसके स्वयंसेवकों में कोई भ्रांति नहीं है, तो वह लेखक इस विषय में क्यों दखल दे रहे हैं? सच है कि वैरभाव को पकड़े रहने की जिद तो कोई वामपंथियों से सीखे!
नेहरू की हजार नकारात्मक कोशिशों के बावजूद श्री गुरुजी ने संघ को नई गति दी और 33 वर्ष के अपने नेतृत्व में उसे एक सुचारु संगठन के नाते स्थापित किया. उसके कई आयाम खड़े करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इसलिए वामपंथी तो उनको अपना परम शत्रु मानेंगे ही. कारवां का लेखक पाठकों को भ्रम में रखना चाहता है कि ‘हुद्दार के साथ हुई कटु बैठक के बाद डॉक्टर जी ने श्रीगुरुजी को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया’. जिस व्यक्ति को 1930 में डॉक्टर साहब ने संघ से निकाल दिया, जो 1939 तक डॉक्टर जी के दिल में जगह नहीं बना पाया, जो यूरोप से लौटकर फिर से अपना स्थान न बना पाया, क्या उसे डॉक्टर जी अपना उत्तराधिकारी बना सकते थे?
एक और राग कांग्रेसी और वामपंथी वर्षों से अलाप रहे हैं कि ‘श्री गुरुजी की अंग्रेजों के साथ मिलीभगत थी’. अनेक तथ्यों के सामने होने के बाद भी यह शरारत की जाती रही है. मैंने स्वयं अपनी पुस्तक में ऐसे तथ्य रखे हैं. उस पुस्तक में इस विषय पर जो लिखा है, उसका एक अंश इस प्रकार है – ‘11 अगस्त,1942 को कुछ बहादुर तरुणों ने पटना के एक सरकारी भवन पर तिरंगा लहराने का साहस किया.
पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसमें 6 सत्याग्रही मारे गए. इनमें से दो संघ के स्वयंसेवक थे, देवीपाद चौधरी और जगतपति कुमार. विदर्भ में संघ का काम 1942 में अच्छा था. वहां स्वयंसेवक सत्याग्रही, बालाजी राईपुरकर की पुलिस की गोली लगने से मृत्यु हो गई. प्रख्यात ‘चिमऊ अष्टि प्रकरण’ में संघ के स्वयंसेवकों ने कांग्रेस के नेता के साथ स्थानीय सरकार स्थापित की. दादा नायक उस समय वहां संघचालक थे. उन्हें मृत्युदंड दिया गया. उस समय डॉ. न.ब. खरे ने उनकी मृत्युदंड की सजा आजीवन कारावास में परिवर्तित करवाई’. (पुस्तक – संघ और स्वराज, लेखक – रतन शारदा, पृष्ठ 44-45) सिंध में हेमू कालाणी नामक तरुण स्वयंसेवक को रेलवे की पटरियां उखाड़ने के आरोप में एक सैन्य अदालत द्वारा 1943 में फांसी की सजा दी गई. (पुस्तक – 9 ईयर्स आफ आरएसएस इन सिंध – 1939-1947, लेखक गोविंद मोटवाणी)
संघ कार्य की सब ओर प्रशंसा
एक कांग्रेसी नेता गणेश बापू शिनकर ने अपनी पार्टी से त्यागपत्र देकर संघ के पक्ष में 1947 में बयान दिया, – संघ एकमात्र संगठन था, जिसके स्वयंसेवकों ने भूमिगत नेताओं को 1942 में अपने घरों में शरण दी. उनके वकील स्वयंसेवकों ने निडर होकर हमारे केस लड़े. (पुस्तक – द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक – रंगाहरि, पृष्ठ 100) क्या यह सब श्री गुरुजी के सहयोग के बिना संभव था? यह अंश उस समय की अंग्रेज पुलिस के खुफिया विभाग के हवाले से उद्धृत है – तारीख 13 दिसंबर 1943 – अभी संघ पर प्रतिबंध लगाने लायक कोई आधार नहीं बन रहा. परंतु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि गोलवलकर बड़ी तेजी से एक मजबूत संगठन खड़ा कर रहा है, जो उसके हर आदेश को मानेगा, गोपनीयता रखेगा, और उसके कहने पर किसी भी समय तोड़फोड़ की कार्यवाही को अंजाम देगा. यह संगठन सतही तौर पर ‘खाकसार’ जैसा दिखता है. परंतु एक मूलभूत अंतर है. खाकसार का नेता इनायतुल्ला बड़बोला और पागल किस्म का आदमी है, जबकि गोलवलकर एक चेतन, अत्यंत होशियार और बुद्धिमान नेता है.’ (पुस्तक – संघ : बीज से वृक्ष, पृष्ठ 60-61)
संघ पर प्रतिबंध
इतना ही नहीं, श्री गुरुजी 15 अगस्त, 1947 के एक सप्ताह पहले तक स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ाने और उनको लीगी गुंडों का प्रतिकार करने को तैयार रहने के प्रति सजग रखने के लिए प्रवास पर थे. इस क्रम में वे अपने अग्रणी साथी माधवराव मूल्ये और बालासाहब देवरस के साथ पंजाब और सिंध के दौरे पर थे. जबकि उस समय हिंसा, हत्याओं और लूटपाट की घटनाएं शुरू हो चुकी थीं. (पुस्तक – द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक – रंगाहरि, पृष्ठ106-115) उनके इस कार्य से बढ़ी संघ की लोकप्रियता ही संघ के विरोधियों को अरुचिकर लगी. कोई और देश होता तो ऐसे तरुणों को मालाएं पहनाता, उन्हें आगे बढ़ाता. लेकिन हमारे देश के तत्कालीन कांग्रेस नेताओं ने उन पर पाबंदी लगाकर पूरे बल से संघ को कुचलने की कोशिश की.
सरदार पटेल ने नेहरू जी के कहने पर संघ पर पाबंदी लगाई थी. 21 दिन बाद सीआईडी रिपोर्ट आई कि ‘गांधी हत्या में संघ का कोई हाथ नहीं है, न ही गांधी हत्या के बाद मिठाई बांटने में उसकी भूमिका है’. इसके बावजूद महीनों तक यह ड्रामा चलता रहा. (पुस्तक – द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक – रंगाहरि, पृष्ठ 139-140) सत्याग्रह के माध्यम से बढ़ते विरोध के बाद संघ पर से पाबंदी हटानी पड़ी. उस समय नेहरू जी नेपथ्य में चले गए. स्मरण रहे कि गांधी हत्या के कुछ दिन पहले नेहरू जी पंजाब की एक सभा में कह चुके थे कि ‘मैं संघ को कुचल दूंगा’, जबकि सरदार पटेल चाहते थे कि संघ कांग्रेस के साथ काम करे.
यह बात उन्होंने संघ पर पाबंदी के दौरान एक पत्र में लिखी थी. कांग्रेस की राज्य समितियों ने गांधी हत्या से पहले ही संघ पर पाबंदी के प्रस्ताव पारित कर दिए थे. (पुस्तक – द इंकम्पेयरेबल गुरुजी, लेखक – रंगाहरि, पृष्ठ 122-123). कारवां के लेखक को बालासाहब हुद्दार का बखान करने का तो पूरा हक है, परंतु तथ्यों को तोड़-मरोड़कर संघ और उसके अधिकारियों, कार्यकर्ताओं को बदनाम करने का हक कतई नहीं है. जैसा प्रारंभ में लिखा है कि वामपंथियों और नेहरूवादियों का वैरभाव हिन्दुत्व के प्रति है, लेकिन संघ या डॉक्टर जी अथवा श्री गुरुजी से उनका यह वैरभाव क्यों है, यह समझना भी बहुत मुश्किल नहीं है.
स्वामी विवेकानंद की निंदा से लेकर संघ विरोध तक के उनके दुष्प्रयास आज भी रुके नहीं हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी विरोध गुजरात दंगे की वजह से नहीं है, क्योंकि उससे बड़े दंगे तो कांग्रेस राज में हुए थे. मोदी से उनका विरोध इसलिए है क्योंकि वे हिन्दुत्व में बिना किसी लाग-लपेट के आस्था प्रदर्शित करते हैं. वे भारत की सभ्यता और संस्कृति को पोषित करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं. नि:संदेह, सदियों पुराना यह संघर्ष अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है. इसमें सत्य, हिन्दुत्व और भारतीयता की विजय सुनिश्चित है.